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ब्राह्मणों ने वैदिक परंपरानुसार किया श्रावणी उपाकर्म जनेऊ संस्कार।

पेटलावद@डेस्क रिपोर्ट

 

पेटलावद। रक्षाबंधन का पर्व एक ओर जहां भाई-बहन के अटूट रिश्ते को राखी की डोर में बांधता है, वहीं यह वैदिक ब्राह्मणों को वर्षभर में आत्मशुद्धि का अवसर भी प्रदान करता है। वैदिक परंपरा अनुसार जनेऊ धारी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है।इसी त्योहार को पेटलावद ब्राह्मण समाज के समाजजनों ने पम्पावती नदी के तट पर स्थित गुरुद्वारा में मनाया। आचार्य पंडित अरविंद भट्ट ने पूरी विधि सम्पन्न करवाई।रक्षाबंधन पर ब्राह्मण पितृ व ऋषि तर्पण कर श्रावणी उपाकर्म (नई जेनऊ का धारण) करते हैं। श्रावण माह की पूर्णिमा को होने वाला यह पर्व खास महत्व रखता है।गुरुद्वारा में हुई सम्पूर्ण विधि आचार्य अरविंद भट्ट के मार्गदर्शन में पंडित राजेंद्र शुक्ला, नरेश नारायण शुक्ल, राजेश पालीवाल, अशोक रामावत, जीवन भट्ट, ब्राह्मण समाज के अध्यक्ष मनोज जानी, महासचिव यश रामावत, कोषाध्यक्ष धर्मेंद्र द्विवेदी, सत्यनारायण जोशी, पंडित नितेश दवे, पंडित पंकज दवे, पंडित आशुतोष दवे, हरीश व्यास, पं श्रवण दवे, युवा मंडल कोषाध्यक्ष मनमोहनसिंह राजपुरोहित, विशाल जोशी सहित बड़ी संख्या में समाजजन विशेष रूप से मौजूद रहे।

श्रावणी उपाकर्म का महत्व बताया-

श्रावणी उपाकर्म में प्रायश्चित संकल्प, तर्पण, यज्ञोपवीत धारण, प्राणायाम आदि किया जाता है। शास्त्रों में श्रावणी को ब्राह्मणों का अधिकार व कर्तव्य बताते हुए कहा गया है कि वेदपाठी ब्राह्मणों को इस कर्म को त्यागना नहीं चाहिए।प्रायश्चित संकल्प, संस्कार व स्वाध्याय श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष हैं। संकल्प लेकर गाय के दूध, दही, घृत, गोबर व गोमूत्र व पवित्र कुशा से स्नानकर करने के बाद वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पाप कर्मों के लिए प्रायश्चित किया जाता है। यह जीवन को सकारात्मकता की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करने वाला है।

स्नान के बाद हुआ ऋषिपुजन-

स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान व यज्ञोपवीत पूजन करने का विधान है। इसे प्रायश्चित संकल्प कहा गया है। नवीन यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण करना आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय है। इसमें ऋग्वेद के मंत्रों से आहुति दी जाती है।

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